'पत्रकारा' शब्द गढ़कर नवभारत टाइम्स स्त्री पत्रकारों को कौन सा सम्मान देना चाहता है?
🔖 राकेश कायस्थ
अपने उट-पटांग प्रयोगों से हिंदी की हत्या करने वाला नवभारत टाइम्स `भाषा क्रांति’ करने निकला है। नव-भारत टाइम्स का दावा है कि हिंदी गैर-बराबरी की भाषा है और नये शब्द गढ़कर ही इस भाषा को लैंगिक पूर्वाग्रहों से मुक्त किया जा सकता है।
लैंगिक या अन्य किस्म के भाषाई पूर्वाग्रहों को लेकर चिंता पूरी दुनिया में है। इसका सबसे अच्छा समाधान ये है कि लैंगिक पूर्वाग्रह वाले शब्दों को जेंडर न्यूट्रल शब्दों से रिप्लेस किया जाये। कुछ साल पहले आईसीसी यानी इंटरनेशनल क्रिकेट काउंसिल ने इस मामले में एक अच्छी पहल की थी।
आईसीसी ने बैट्समैन जैसे शब्दों को बैन कर दिया और उसकी जगह बैटर शब्द का इस्तेमाल शुरू किया, जो महिला और पुरुष दोनों खिलाड़ियों के लिए समान रूप से इस्तेमाल किया जाता है। ध्यान रहे आईसीसी अब बैट्सवुमेन शब्द इस्तेमाल नहीं करता है।
बराबरी की भाषा गढ़ने का सबसे अच्छा तरीका यही है कि जेंडर न्यूट्रल शब्द अपनाये जायें और जिन शब्दों के जेंडर न्यूट्रल विकल्प ना हों, उन्हें स्वभाविक तौर पर जेंडर न्यूट्रल मान लिया जाये।
उदाहरण के तौर पर एक्टर या डायरेक्टर। अंग्रेजी भाषा में अब ये शब्द पुरुष हो या महिला दोनों के लिए समान रूप से इस्तेमाल होते हैं। अभिनय के क्षेत्र में सक्रिय महिलाएं भी एक्टर कहलाना पसंद करती हैं ना कि एक्ट्रेस।
दिलचस्प बात ये है कि अपनी रोजमर्रा की भाषा में भर-भरकर अंग्रेजी इस्तेमाल करने वाला नवभारत टाइम्स को बैटर जैसे जेंडर न्यूट्रल शब्द पसंद नहीं हैं। गाजे-बाजे के साथ इस अखबार ने महिला दिवस पर विज्ञापन छापकर बताया कि बराबरी की भाषा गढ़ते हुए हम महिला बल्लेबाज को अब बल्लेबाजनी कहेंगे।
पहली बात ये है कि ‘बल्लेबाजनी’ अपने आप में कोई नया शब्द नहीं है। यह किसी पुर्लिंग शब्द में स्त्रीवाची प्रत्यय जोड़कर स्त्रीलिंग शब्द बनाने का वही नुस्खा है, जो बरसों से चला आ रहा है, जैसे पंडित से पंडिताइन और डॉक्टर से डॉक्टरनी। इन शब्दों से स्त्री जाति का मान कतई नहीं बढ़ता बल्कि उन्हें घोषित तौर पर सेकेंड सेक्स के तौर पर चिन्हित किया जाता है। जो बल्लेबाजनी शब्द अपने अस्तित्व के लिए ही बल्लेबाज़ शब्द पर निर्भर है, वो किस लिहाज से सम्मानजनक है?
भाषा क्रांति लाते हुए नवभारत टाइम्स अगर बैटर के लिए बल्लेबाजनी प्रचलन में ला रहा है तो फिर उसे ये भी बताना चाहिए राष्ट्रपति शब्द के लिए उसके पास `बराबरी की भाषा’ का विकल्प क्या है? नवभारत टाइम्स सेना की महिला जवान के लिए कौन सा शब्द इस्तेमाल करना चाहता है?
नवभारत टाइम्स के आज के अंक में महिला पत्रकार के लिए पत्रकारा शब्द का इस्तेमाल किया गया है। यह भी स्त्रीवाची प्रत्यय जोड़कर पुर्लिंग का स्त्रीलिंग बनाने का नुस्खा है, उदाहरण- अदाकार से अदाकारा। मुझे ये देखकर ताज्जुब हो रहा है कि सोशल मीडिया पर बहुत से लोग इस प्रयोग पर लहालोट हैं, वे मान रहे हैं कि वाकई भाषा क्रांति हो रही है। इन में पर्याप्त संख्या में स्त्रियां भी हैं।
एक महिला पत्रकार का सशक्तिकरण इस बात पर निर्भर करता है कि उसे अपने संस्थान में आगे बढ़ने के समान अवसर मिलते हैं या नहीं। उसे रिपोर्टिंग के लिए हेल्थ, कल्चर और वुमेन इश्यूज से आगे ऐसे बीट दिये जाते हैं या नहीं, जिन्हें लेकर लगभग हर संस्थान में लैंगिक पूर्वाग्रह होते हैं।
पत्रकार हिंदी भाषा में एक जेंडर न्यूट्रल शब्द की तरह इस्तेमाल होता आया है। मृणाल पांडे से लेकर नीरजा चौधरी तक को हम वरिष्ठ पत्रकार के तौर पर जानते हैं। पत्रकारा कोटे में डालकर नवभारत टाइम्स स्त्री पत्रकारों को कौन सा सम्मान देना चाहता है, यह मेरी समझ से परे है।
जो बात पर्यावरण को लेकर लागू होती है, वही भाषा संसार पर भी लागू है। सफाई से ज्यादा जरूरी है ये कि आप खुद गंदगी ना फैलाये। नवभारत टाइम्स बिना सोचे-समझे जो भाषा नीति अपना रहा है वो हिंदी के दीर्घकालिक भविष्य के लिए लिए खतरनाक है।
आज का उदाहरण सामने है। अपनी हेडिंग में नवभारत टाइम्स बीजेपी और जेडीयू के लिए रोमन में BJP और JDU लिख रहा है। कोई बता सकता है कि इसके पीछे कौन सा तर्क काम कर रहा है? ये दोनों शब्द संक्षेप खालिस हिंदी भाषा के हैं, अखबार हिंदी का है, लेकिन हेडिंग में इस्तेमाल रोमन का!!
दुनिया में अनगिनत भाषाओं से उनकी लिपि छीनी जा चुकी है। हिंदी को लेकर यह साजिश बरसों से चल रही है। पूरा बॉलीवुड इस मुहिम में शामिल है। नवभारत टाइम्स ऐसा अज्ञानता में कर रहा है या फिर वो खुद इस बड़ी साजिश का हिस्सा है?
वरिष्ठ पत्रकार राकेश कायस्थ के इस आलेख पर फेसबुक पर आई कुछ टिप्पणियां:
Kishore Malviya: नवभारत टाइम्स कोई भाषा क्रांति नहीं कर रहा बल्कि प्रयोग के नाम पर गंदगी फैला रहा है। राजेन्द्र माथुर, सुरेन्द्र प्रताप सिंह, विद्यानिवास मिश्र, विष्णु नागर, प्रयाग शुक्ल और विष्णु खरे जैसे विद्वानों वाले इस अख़बार की विडम्बना ये है कि अब इसमें ज़्यादातर लोग अधकचरे ज्ञान वाले हैं। उनके प्रयोग का स्तर सोशल मीडिया के निचले पायदान वाला है जहाँ अब एंकर को एंकरनी कहा जाने लगा है। जहां तक अंग्रेज़ी शब्दों के प्रयोग का सवाल है, ये सिर्फ़ सुविधा के लिए कर रहे हैं। जनता दल युनाइटेड कौन लिखें जब JDU से काम चल जा रहा है।इस घटिया प्रयोग पर तालियाँ बजाने वाले समान रूप से ज़िम्मेदार हैं।अपनी पत्रकारिता नवभारत टाइम्स से ही शुरू की थी इसलिए प्रतिक्रिया देने से खुद को रोक न सकी।
Manoj Kumar Sinha: NBT को ग़फलत है "नवीन भाषा टाईम्स" बनने की। उनका यह मानना है कि आज के युवा ऐसी ही भाषा पसंद करते हैं। एक दिन पूरा अख़बार पढ़ने के बाद ज़िंदगी भर पढ़ी हुई हिंदी पर ही शक होने लगेगा।
Pooja Makkar: कोई नवभारत वाला पढ़ रहा हो तो कृपया सही जगह तक बात पहुंचाए। आइडिया मालिक की तरफ से हो तो भी फिर सोचें। बचपन से यही अखबार पढ़ रहे हैं लेकिन ये प्रयोग गले नहीं उतर रहा।