Wednesday, November 4, 2020

मोदी सरकार का चहेता होने से क्या अर्नब गोस्वामी को किसी का पैसा हड़पने और अत्महत्या के लिए मजबूर करने का हक मिल गया?

प्रभात डबराल

ये बात ध्यान में रखें कि अर्नब गोस्वामी को पत्रकार के रूप में किए गए किसी कर्म के लिए हिरासत में नहीं लिया गया है. चैनल के मालिक के रूप में उन्होंने सेट बनाने के लिए जो ठेके दिए थे, मामला उस व्यापारिक गतिविधि से जुड़ा है.


अर्नब पर आरोप है कि उसने अपने चैनल के लिए करोड़ों का काम कराया और भुगतान नहीं किया. जिस सेट डिज़ाइनर ने ठेका लिया था वो अपने सब-कांट्रेक्टर्स को भुगतान नहीं कर पायी और दबाव में आकर उसने आत्महत्या कर ली. 


ये मामला २०१८ का है. लम्बी टालमटोल के बाद पुलिस ने विपक्ष के दबाव में मामला दर्ज तो किया पर फ़ौरन रफ़ा दफ़ा  भी कर दिया. उस समय बीजेपी के फडनवीस मुख्यमंत्री थे. सरकार बदली तो शिकायतकर्ता ने फिर से शिकायत की . मामला फिर खुल गया. ये तब की बात है जब सुशांत/रिया का मामला उठा भी नही था. मालिकों के व्यापारिक हितों के लिए पत्रकार लड़ें या नहीं, ये मसला दशकों से बहस का मुद्दा रहा है.


एक ज़माना था जब कंट्रोल का न्यूज़ प्रिंट अख़बारों को सब्सिडी में मिलता था. बड़े अख़बारों के मालिक सब्सिडी बढ़ाने के लिए पत्रकारिता की दुहाई देते हुए सरकार पर दबाव  बनाते थे. यूनियनों ने कभी उनका साथ नहीं दिया. करोड़ों अरबों की कम्पनियों के मालिकों और वहाँ काम कर रहे पत्रकारों के हित अक्सर टकरातेहैं, ये बात ध्यान में रखनी चाहिए. चैनल मालिक के व्यापारिक हितों के लिए पत्रकारिता के नाम का इस्तेमाल ठीक नही है. 


मत भूलिए कि अर्नब और दूसरे चैनलों के मालिक आए दिन पत्रकारों को नौकरी से निकालते रहते हैं. श्रम क़ानूनों का पालन नहीं करते. ऐसे बीसियों मुक़दमे अदालतों में चल रहे हैं. ऐसे में पत्रकारों के संगठन मालिक के साथ कैसे खड़े हो सकते हैं?


क्या सिर्फ़ इसलिए कि अर्नब मालिक होने के साथ साथ एंकर भी है. फिर तो पत्रकारों और उनके संगठनों को सुधीर चौधरी और तरुण तेजपाल के साथ भी खड़ा होना चाहिए था. एक चैनल के लिए माल ऐंठ रहा था और दूसरे पर बलात्कार की कोशिश  इल्ज़ाम है.


ये भी ध्यान में रखिए कि सुशांत का मसला उठते ही अर्नब ने मुंबई पुलिस पर चीखना चिल्लाना शुरू कर दिया था. तब तक आत्महत्या वाली फ़ाइल खुल चुकी थी. क्या अर्नब पुलिस पर दबाव बना रहा था?


अर्नब बीजेपी/हिंदुत्व का पैरोकार है, मुझे उससे फ़र्क़ नही पड़ता. ये उसका अधिकार है. वो चीखता चिल्लाता है, उसकी  मर्ज़ी. लेकिन सरकार का मुँहलगा है तो दूसरों  के पैसे मार लेगा? आत्महत्या करने पर मजबूर कर देगा? और हम मामले की जाँच भी नही होने देंगे. ये क्या बात हुई?

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