Friday, November 6, 2020

अभिव्यक्ति की आजादी और पत्रकारिता का कत्ल तब हुआ गोस्वामी ने खुद जज बनकर बेकसूरों को क़ातिल की तरह पेश किया

रविकांत ठाकुर

अभिव्यक्ति की आजादी और पत्रकारिता का कत्ल क्या तब नहीं हुआ जब गोस्वामी खुद ही जज, खुद ही वकील बनकर, बिना तथ्यों के लोगों को कातिल बनाने में जुटा हुआ था, सिर्फ 'सॉरी बाबू' कहने पर लोगों को कातिल बनाकर पेश करता था, क्या पत्रकारिता का कत्ल तब नहीं हुआ था जब बिना सबूतों के गोस्वामी कहता था कि वह पालघर के संतो को मरवा कर खुश हो रही होगी, क्या पत्रकारिता पर तब हमला नहीं हुआ था जब वह आत्म हत्या के केस को हत्या की तरह पेश करके लोगों को फांसी पर लटकाने की झूठी मुहिम चला रहा था? 


सुशांत के केस में कोई सुसाइड नोट नहीं था लेकिन फिर भी  कई बेगुनाहों को हत्यारे की तरह पेश किया गया,और अन्वय नायक ने अपने सुसाइड नोट में साफ लिखा है कि उसने आत्महत्या अर्णब गोस्वामी की वजह से की है, जस्टिस फॉर सुशांत से आप इसलिए सहमत है क्योंकि वो एक बड़ा फिल्म स्टार है, जस्टिस फॉर अन्वय के लिए आप इसलिए उसके साथ खड़े नहीं है क्योंकि वह एक मिडल क्लास  का एक आम बेटा है बिल्कुल आप की तरह, जिसकी कोई पहचान नहीं है जिसकी कोई फिल्म आपने नहीं देखी है।


अन्वय न ही  ड्रग लेता था, ना ही फिल्म स्टार की तरह गर्लफ्रेंड बदलता था, अन्वय सिर्फ अपनी ईमानदारी से मेहनत की कमाई के बूते जिंदगी जी रहा था जैसे एक आम आदमी जीता है और इसी कमाइ को हड़पने का आरोप उसने  गोस्वामी पर लगाया है, लेकिन दूसरी तरफ मुंबई पुलिस भी कम गुनहगार नहीं है जब अर्णव को  सत्ता का संरक्षण था तो दबाव में आकर यह केस बंद कर दिया और आज बदले की कार्यवाही के लिए मुंबई पुलिस ने इस केस को दोबारा री ओपन कर दिया, लेकिन इन सबके बीच, यानी मुंबई पुलिस और अर्णब गोस्वामी के बीच अगर कोई मूर्ख बना है तो वह है आम आदमी जिसे लगता है कि कथित पत्रकार गोस्वामी और मुंबई पुलिस उसे इंसाफ दिलाने के लिए काम कर रहे हैं और मुहिम चला रहे हैं।

No comments:

Post a Comment

Noticeable