न्यूज़ चैनल महिला पत्रकार को 'भाभीजी' बनाकर भेज रहा है, पुरुष रिपोर्टर होता तो क्या उसका नाम जीजाजी होता?
🔖 रवीश कुमार
जिस समय सवाल उठ रहे हैं कि तालिबान के विदेश मंत्री की प्रेस कान्फ्रेंस में किसी महिला पत्रकार को नहीं बुलाया गया, उसी समय में यह भी देखना चाहिए कि हम अपनी महिला पत्रकारों के लिए कौन सी भूमिका तय कर रहे हैं। उन्हें न्यूज़ रूम में बुलाकर भी क्या पत्रकार बना रहे हैं? अगर बाहर के स्पेस में आप चौका बर्तन के स्पेस वाली भूमिका दे रहे हैं तो यह उन महिला पत्रकारों के साथ बहुत बड़ा छल हैं जिन्होंने किसी तरह इस क्षेत्र में अपनी जगह बनाई है। निश्चित रुप से भी भाभी जी बनने के लिए नहीं।
यह बिहार का चैनल है। इस शो का नाम है "भाभी जी चुनाव मैदान में"। एक महिला पत्रकार को भाभी जी बनाकर भेज रहे हैं। अगर यही शो किसी पुरुष ऐंकर को दिया जाता तो उसका नाम जीजाजी होता? शायद उसका नाम होता मुखिया जी चुनाव मैदान में। स्थानीय भाषा और सामाजिकता के स्तर पर उतर कर संवाद करने के लिए अगर आप किसी महिला पत्रकार को भाभी जी में फ्रेम करते हैं तब यह भी सोचना चाहिए कि उस समाज में भाभी जी की मौजूदगी का टोन क्या है। यह रिश्ते के नाम पर एक और तरह का वस्तुकरण है।
गोदी चैनलों में क्या पत्रकार और क्या पत्रकारिता, फिर भी इस भ्रम को लेकर काम कर रहे लोग अभी तक पत्रकार की पहचान ही सबसे पहले बताते होंगे तो उस लिहाज़ से एक पत्रकार की पहचान पर भाभी जी का रंग चढ़ा कर चैनल चुनावी कवरेज में बहुत अलग नहीं हो जाता है।
घूम घूम कर पूछने का कार्यक्रम अब अपनी सीमा पर पहुंच गया है। एक तरह से धंस गया है। जनता अंधेरे में खड़ी है। अपने स्मार्ट जवाबों से चकित करती है और वायरल हो जाती है लेकिन सवाल ऐसे पूछे जाते हैं कि जवाब में सूचना का रोल न रहे, केवल धारणाएँ और पूर्वाग्रहों का ही सर्कुलेशन होता रहे।
बीस साल से बिहार में बीस साल पहले का चुनाव हो रहा है। बीस साल पुरानी समस्या अगर ख़त्म होने का दावा किया जा रहा है तो इसका मतलब यह नहीं कि इस बीस साल में कोई समस्या पैदा नहीं हुई। बीस साल पुरानी धारणा को बार बार लाया जा रहा है लेकिन बीस साल के दौरान क्या हुआ उसे दिखाने के लिए पुल और घाट का विजुअल होता है।
सामने बेकारी और ग़रीबी खड़ी है लेकिन इस पर कोई बात नहीं है। इतना विकास हो गया था तो वोट लेने के लिए खाते में दनादन पैसा डालने की होड़ पर कोई बात नहीं। बेगुसराय के ज़िला अस्पताल में कितने डॉक्टर हैं, आई सी यू कितना है। कॉलेज की पढ़ाई का स्तर कैसा है। इस पर क्या बात होगी अगर सवाल तेजस्वी से शुरू होगा और इस पूर्वाग्रह से कि अपने बाल बच्चों का भविष्य सोच लिए हैं। इस चालाकी को अब मीडिया का हिस्सा मान लिया गया है। ख़ैर।
आप उस जनता से पूछ रहे हैं जिसे सूचना नहीं है। अपने ही ज़िले का हाल पता नहीं है। अभी किसी की तबियत ख़राब हो जाए तो पटना से दिल्ली तक दौड़ेगा या वहीं अस्पताल में लुटा जाएगा। ज़िले के स्कूल से लेकर अस्पतालों के क्या हाल है, पुल पुलिया के निर्माण में नया ठेकेदार कौन बना, उसकी हनक कैसी है, विकास योजनाओं को लूट कर नए नए बाबुबली बन गए हैं, सबको इनके बारे में पता है लेकिन अब बोल नहीं सकते हैं क्योंकि आज के बिहार में आप ख़बर नहीं लिख सकते।
लिख बोल सकते तो SIR के दौरान बिहार के पत्रकार सवालों की ढेल लगा देते। अजीत अंजुम को दिल्ली से नहीं जाना पड़ता। आज के बिहार की पत्रकारिता को किसने खत्म किया? वह उस विकास के दौर में ही क्यों भाभी जी बन गई जिस विकास की तारीफ में भाभी जी निकली हैं?
इसके बाद भी पत्रकार बीस साल पहले की बात याद दिला रहा है। बीस साल पहले पत्रकार बिहार में जैसी पत्रकारिता कर लेते थे, क्या आज कर सकते हैं? भाभी जी बनाई जा सकती हैं, मुखिया जी बन सकते हैं।
बाकी बिहार के चुनावी कवरेज का भाषा के लिहाज़ से भी विश्लेषण होना चाहिए। वरिष्ठ पत्रकार शंभुनाथ शुक्ल ने हिन्दी के मान्य व्याकरण को लेकर कुछ लिखा है। भाभी जी की भाषा को सुनते हुए यही लगा कि साल भर यह चैनल जिस हिन्दी में बात करते हैं, जनता के बीच सबसे पहले हिन्दी छोड़ देते हैं।
क्या हिन्दी वाकई जन भाषा नहीं है। जनभाषा है तो पूरे हिन्दी प्रदेशों की नहीं है? क्या भाभी जी को मोतिहारी जाते ही भोजपुरी बोलना पड़ेगा और भागलपुर में अंगिका। हिन्दी के इतने बड़े प्रदेश में हिन्दी, हिन्दी की तरह नज़र आ रही है, इस पर अलग से अध्ययन करना चाहिए।