Wednesday, September 10, 2025

द बंगाल फाइल्स: विवेक अग्निहोत्री की यह फिल्म किसी भी राजनीतिक दल की तकरीरों से ज्यादा राजनीतिक है!


🔖  रोहित देवेंद्र

बंगाल फाइल्स का एक सीन है। डायरेक्ट एक्‍शन डे के दिन चारों ओर मारकाट मची है। पीड़ित हिंदुओं का एक ग्रुप महात्मा गांधी के पास इस पर उनसे दखल देने की मांग लेकर आता है। फिल्म दिखाती है कि गांधी उसे अनमने भाव से सुनते हैं, फिर अहिंसा की कुछ शालीग्रामी बातें करते हुए कहते हैं कि 'अब मेरा बकरी का दूध पीने का समय हो गया है'। इसके अगले सीन में ही कैमरा क्लोजअप से उन्हें बकरी का दूध निकालते हुए दिखाता है। इस सीन के आते ही मेरे सीट के पीछे बैठे कुछ युवकों में से एक के मुंह से भो... का शब्द निकलता है। विवेक अग्निहोत्री इसी शब्द और इस शब्द जैसी भावनाओं के लिए ही इस सीन को रखते हैं।

 

अनुपम खेर अच्छे अभिनेता हैं। एक्टिंग की पढ़ाई डूबकर पढ़ी है। उन्हें पता था कि बकरी का दूध पीने का समय हो गया है इस बात को कहते हुए किस तरह की भंगिमाएं, शब्दों और लहजे में घोलनी हैं। किसी की नकल करना और नकल करते वक्त उसका माखौल उड़ना इस बात का फर्क अनुपम भी जानते हैं और विवेक भी। एक और सीन में गांधी और हिंदू महासभा के हिंसक कार्यकर्ता के बीच हुई बातचीत में कैमरा गांधी की मुद्रा और विवेक के निर्देशन को आसानी से समझा जा सकता है। मुझे नहीं पता कि महात्मा गांधी, मोहम्मद अली जिन्ना को हर बार मेरे प्रिय छोटे भाई जिन्ना कहकर बुलाते थे या नहीं पर यह फिल्म गांधी से हर बार जिन्ना के लिए 'प्रिय छोटे भाई' का अलंकार लगवाती है। मुझे मुसलमान बहुत प्रिय हैं का सबटाइटिल जोड़कर। यहां एक बार फिर अनुपम अपनी पूरी मेहनत लगा जाते हैं। जाहिर सी बात है कि फिर से उसी भो... वाली फीलिंग को पैदा करने के लिए। 


बंगाल फाइल्स आम जनमानस के लिए बना हुआ सिनेमा नहीं है। बिल्कुल भी नहीं। न ही यह इतिहास की क्लास है। जिसे ज्ञानवर्द्धन के लिए देखा जाए। इस फिल्म को देखने के लिए कुछ मूल अनिवार्यताएं हैं... जैसे कि आप इस सोच वाले हों कि हर मुसलमान आतंकी है, हर मुसलमान भारत को एक इस्लामिक राष्‍ट्र बनाने का मंसूबा लेकर जीता है, आप यह ऐतबार करें कि मुसलमान जानबूझकर बच्चे इसलिए पैदा करते हैं कि कल को उनकी भारत में आबादी पहले तीस फिर चालीस प्रतिशत हो जाए और सरकारें वही तय करें। 



आप यह मानकर चलें कि कांग्रेस, नेहरू, गांधी, मौलाना, पटेल या स्वतंत्रता संग्राम आंदोलन से जुड़े हुए सभी लोग अंग्रेजों और मुसलमानों के हाथों की कठपुतली थे। इस फिल्म को देखने के लिए यह बेहद जरूरी है कि आप हिंदू महासभा, बजरंगदल, राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ और आज की भाजपा की विचारधारा पर गहराई से ऐतबार करते हों और उसी अनुपात में बाकी पार्टियों को हिंदुओं की दुश्मन मानते हों। अगर आप दर्शक के तौर पर इन पैरामीटर को पूरा नहीं करते हैं तो बंगाल फाइल्स का हर सीन, हर डायलॉग आपको संकीर्णता, कट्टरपंथ और घटिया प्रोपेगंडा की बू देगा। विवेक अग्निहोत्री कश्मीर फाइल में यह सफल प्रयोग कर चुके हैं। बंगाल फाइल इसका विस्तार है। बीच में वैक्सीन पर आई उनकी एक असफल फिल्‍म उन्हें यह एहसास करा गई कि उनकी मास्टरी सिनेमा से ज्यादा हिंदू-मुस्लिम विषयों में है। 


बंगाल फाइल्स एक साथ दो कहानियों को लेकर चलती है। एक 16 अगस्त 1946 को डायरेक्ट एक्‍शन डे की और दूसरी आज के बंगाल की। आज के बंगाल में एक सीबीआई ऑफिसर एक दलित लड़की के गायब हो जाने की जांच करने के लिए दिल्ली से कोलकाता आता है। जाहिर है कि बंगाल में उस पार्टी की सरकार नहीं है जिस पार्टी की सरकार दिल्ली में है। जिस इलाके में वह पुलिस थाना है उसका इंचार्ज उस सीबीआई ऑफिसर से बताता है कि बंगाल में दो संविधान चलते हैं। एक हिंदुओं और एक मुसलमानों का। वह पूरा इलाका इस्लामिक झंडों से पटा होता है और जहां मुस्लिम महिलाएं सीबीआई अधिकारी पर पत्‍थर चलाती हैं। 


फिल्म इन दोनों कहानियों को बारी-बारी लेकर आती है। यह कोई फ्लैशबैक जैसा नहीं है। एक कहानी आने पर वह पर्दे पर चालीस से पचास मिनट तक चला करती है। फिर दूसरी कहानी आने पर वह भी इतना ही समय लेती है। सवा तीन घंटे से ज्यादा लंबी इस फिल्म के पास दो अलग-अलग कथाएं हैं। इन पर दो अलग-अलग मुकम्मल फिल्म बन सकती थीं। पर विवेक का इरादा कभी भी फिल्म मेकिंग का नहीं होता। वह फिल्म मेकिंग को टूल भर मानते हैं, किसी और मकसद की प्राप्ति के लिए। निर्देशक इन दोनों घटनाओं को बिल्कुल राजनीतिक तरीके से जोड़ने की कोशिश करते हैं। जो लड़की गायब होती है उसके किरदार को यूंही दलित नहीं दिखाया जाता। 


विवेक की यह फिल्म किसी भी राजनीतिक दल की तकरीरों से ज्यादा राजनीतिक है। अग्निहोत्री अपनी इस फिल्म को स्टेबलिश करने के लिए वह सारे मेटॉफर यूज करते जो ड्राइंग रूम और वाट्सअप विवि में करीब एक दशक से फॉरवर्ड हो रहे हैं। विवेक चूंकि सिनेमा के जानकार हैं इसलिए वह कश्मीर फाइल की तुलना में अपना मेयार बड़ा करने की कोशिश करते हैं। मारकट और हिंसा के दृश्यों के साथ, लाशों से भरे हुए दृश्यों में वह विश्व सिनेमा की प्रचलित फिल्मों के शॉट को कॉपी करने की कोशिश करते हैं। वह शिंडलर्स लिस्ट, द पियानिस्ट, सेव‌िंग प्राइवेट रेयान, डनकर्क जैसी फिल्मों का आवरण यहां बनाने की को‌शिश करते हैं। जैसा कि ऊपर लिखा है यदि दर्शक के तौर पर आप वह पैरामीटर पूरा करते हों तो आपको यह दृश्य अच्छे भी लगेंगे और कलात्मक भी।


एक मिनट के लिए राजनीतिक प्रोपेगेंडा से इतर सिर्फ एक फिल्म के रूप में जज करने जाएं तो भी विवेक यह फिल्म बहुत उबाती है। फिल्‍म की लंबाई बहुत कम की जा सकती थी। जिस समय हिंसा के दृश्य चलते हैं वह खत्म होने का नाम नहीं लेते। हिंसा दिखाने की करीब-करीब हर तरकीब अपनाई जाती है। कलाकारों के लंबे-लंबे मोनोलॉग हैं। कई ऐसे सीन हैं जिनका होना या न होना फिल्म पर कोई असर नहीं डालता।

 


इतिहास, विज्ञान नहीं होता। यहां हर बार दो अणु हाइड्रोजन एक अणु ऑक्सीजन से मिलकर पानी नहीं बनाते। इतिहास का अपना-अपना वर्जन होता है। डायरेक्ट एक्‍शन डे पर विवेक का अपना वर्जन है। इस दिन पश्चिम बंगाल में मुस्लिम लीग की सरकार होती है और केंद्र में बिट्रिश रूल। यह वही मुस्लिम लीग होती है जिसके साथ कुछ दिनों पहले तक बंगाल में हिंदू महासभा मिलकर सरकार चला रही होती है। समाज में एक व्यक्ति का मरना इंसानियत के खिलाफ है। डायरेक्टर एक्‍शन डे के नाम पर हुए पाप को किसी भी तरह से जस्टीफाई नहीं किया जा सकता। विवेक इस इतिहास को दिखाने के लिए अपना सुविधाजनक वर्जन लेते हैं। यह हमारे ऊपर है कि इसे हम विवेक अग्निहोत्री वर्जन और उनका विवेक मानें। 


विवेक के अपने चाहने वाले हैं। विवेक को उनके लिए ऐसा ही सिनेमा लगातार बनाते रहना चाहिए। कश्मीर की पूरी समस्या को कश्मीर फाइल्स के जरिये समझने वाले समाज के एक समूह को बंगाल की समस्या को समझने के लिए बंगाल फाइल्स उपलब्‍ध है। फिल्म बेशक सफल नहीं हुई पर विवेक को फिल्में करते रहना चाहिए...दर्शकों को एहसास कराते रहना चाहिए कि इस कि डायरेक्ट एक्‍शन डे के लिए ब्रिटिश सरकार, मुस्लिम लीग उतने जिम्मेदार नहीं थे जितने कांग्रेस और गांधी। इतिहास, इतिहास होता है विज्ञान नहीं...इसे अपनी तरह से ओढ़-बिछा सकते हैं। 

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