Saturday, October 25, 2025

ग्राउंड रिपोर्टर मेधा यादव के नाम एक ख़त, जहां आवाज़ें दबा दी जाती हैं, वहां आप सुनने की कोशिश करती हैं


प्रिय मेधा यादव

शाम उतर रही है। सूरज अब आसमान के आख़िरी सिरों पर धीमे-धीमे धुँधला रहा है। सड़कों पर गाड़ियों की रफ़्तार थोड़ी थकान लिए दौड़ रही है, जैसे दिन भर की भागदौड़ के बाद अब सबको कहीं न कहीं लौटना है। पर मैं नहीं लौट रहा, मैं तो अपने कमरे में बैठा हूं, एक छोटे से टेबल पर रखी किताब के पन्ने पलटते हुए। सामने निर्मल वर्मा की किताब पड़ी है, "रात का रिपोर्टर।" और ये  किताब मुझे आपको याद दिला रही थी–मेधा यादव, "ग्राउंड की रिपोर्टर।"


आपको देखकर लगता है कि रिपोर्टिंग भी एक साहित्य है, बस उसका काग़ज़ मिट्टी है और स्याही इंसान के पसीने की।

बिहार चुनाव सिर पर है। एक ओर लाउडस्पीकरों की चीख है –भाषणों में लिपटा झूठ, वादों में छिपा डर – और दूसरी ओर घरों में  छठ के गीत। एक तरफ़ सत्ता की पुकार है, दूसरी तरफ़ श्रद्धा की पुकार। और इन दोनों के बीच, कुछ लोग अब भी सच्चाई की तलाश में हैं – कैमरा उठाए, आवाज़ रिकॉर्डर चालू किए, चेहरे पर धूप का निशान लिए। उन्हीं में से एक आप हैं।


आपको जब देखा तो लगा कि आपकी रिपोर्टिंग में कोई ज़्यादा शोर नहीं है, सिर्फ़ सन्नाटा है। आप कैमरे के सामने नहीं, उसके पार जाकर देखती हैं। मैंने कई बार आपको यूट्यूब पर खोजा है – "Jist Medha Yadav" टाइप करता हूं, और जैसे ही आपका वीडियो सामने आता है, लगता है मानो किसी भूले हुए भारत का दरवाज़ा खुल गया हो। वो भारत, जो दिल्ली के स्टूडियो से गायब है। वो भारत, जो अब भी भूख और उम्मीद के बीच झूलता है।


आप जब भारत के सबसे गरीब ज़िलों की गलियों में चलती हैं, तो लगता है जैसे रिपोर्टर नहीं, बल्कि कोई यात्री है जो एक नए जगहों की खोज करने निकली है। जब आप पटना में पढ़ने वाले बच्चों की हालात पर बात करती हैं, तो मुझे अपने कमरे का आईना याद आता है, जिसमें कभी मैं भी वैसा ही एक था, सपनों से भरा और गंदगी से परेशान।


आपका मखाना वाला वीडियो,  मैंने देखा था रात के दो बजे। वीडियो खत्म होने के बाद कुछ देर तक स्क्रीन बंद थी, पर आंखें बंद नहीं हो पाईं। उसमें जो महिला थी, जो हाथ थे, जो मुस्कान थी– वो सब अब भी कहीं न कहीं मन में जिंदा हैं। जब आप कहती है एक औरत से "मशीन चलाने में डर नहीं लगता।"


और फिर, आपका इंट्रो। जिस तरह आप अपने वीडियो की शुरुआत करती हैं, वो किसी अख़बार की हेडलाइन नहीं लगती, किसी कविता की पहली पंक्ति लगती है। इतनी सहज, इतनी मानवीय, और इतनी सच्ची कि दर्शक आकर्षित होजाता है।

जहां लोग जाना नहीं चाहते, वहां आप जाती हैं। जहां कैमरा बंद रहता है, वहां आप चालू करती हैं। जहां आवाज़ें दबा दी जाती हैं, वहां आप सुनने की कोशिश करती हैं।


सच तो ये है कि भारत को आप जैसे बहुत सारे रिपोर्टरों की जरूरत है, ताकि कैमरा वहां भी पहुंच सके जहां कोई नहीं पहुंचना चाहता। बिहार हो या कोई दूसरा राज्य, हजारों कहानियां एक रिपोर्टर और एक कैमरे के लिए भटक रही है।


ख़त लिखने वाला लड़का।

चाय इश्क़ और राजनीति।

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