भारतीय पत्रकारिता का पतन अब उसे कभी उठने नहीं देगा, निजी हाथों में मीडिया की बागडोर देने की कीमत यही है !
🔖 नदीम अख़्तर
एक राजनैतिक मैगज़ीन चलाना और डिजिटल मीडिया पर पॉपुलर होना, दो अलग चीजें हैं। डिजिटल मीडिया भी मूलतः टीवी के टीआरपी सिस्टम की तरह ही काम करता है। यहां उसे यूजर इंगेजमेंट और लाइक्स, व्यूज की शक्ल में तौला जाता है। पर दोनों का मूल एक ही है - Catch the eyeballs यानि दर्शकों की आंखों पर कब्ज़ा। लेकिन राजनीतिक मैगज़ीन चलाने के लिए संपादक का धीर गंभीर और दूरदर्शी होना ज़रूरी है। ये कोई डिजिटल मीडिया का प्लेटफॉर्म नहीं कि हल्की बात करके निकल जाएंगे और व्यूज भी आ जाएंगे।
बहुत साल पहले एक बंद हो चुकी राजनीतिक मैगज़ीन फिर शुरू हो रही थी, तो एक मित्र ने मुझसे सुझाव मांगे कि इसमें क्या क्या रखें। हमने जितनी बुद्धि थी, उस हिसाब से उनको बताया भी। उस वक्त मैंने मित्र को कहा था और आज भी कहता हूं कि इस देश का मिजाज़ ऐसा है जिससे यहां राजनैतिक मैगज़ीन के लिए भूमि बहुत उर्वर है। अगर ढंग से प्लानिंग की जाए और ईमानदारी खबरें निकाली जाएं तो जनता ताली पीटेगी। इतना कुछ है लिखने और बताने को कि पूछिए मत।
लेकिन मुझे ये देखकर दुख होता है कि बड़ी पॉलिटिकल मैग्जींस पीआर करती हैं और खानापूर्ति की रस्म अदा करती हैं। ना ज़मीन पे रिपोर्टर सतर्क है और ना दफ्तर में बैठा एडिटर मुस्तैद। इस मामले में हमने स्वर्गीय एसपी सिंह के बारे में सुना था कि रिपोर्टर से पहले खबर उनके पास आ जाती थी। वो भी उस ज़माने में, जब ना इंटरनेट था और ना मोबाइल फोन्स और ना व्हाट्सएप।
सर्वे का सच: एजेंसियां राजनीतिक दलों से पैसे लेकर फर्जी सर्वे करती हैं और तमाम न्यूज़ चैनल उनके पक्ष में माहौल बनाते हैं #biharelection2025 #ElectionSurvey #Bihar #media #newschannelhttps://t.co/J3t6ugstij
— VOiCE OF MEDIA (@voiceofmedia1) September 3, 2025
वैसे एक मुद्दा ये भी है कि इन मीडिया हाउसेज के मालिक खुद नहीं चाहते कि सत्ता को नाराज़ करने वाली खबरें छपे। इसके भी अनेक कारण हैं। तो याद कीजिए कि हाल फिलहाल आपने कौन सी पॉलिटिकल मैगज़ीन खरीदी थी? मुझे तो वर्षों हो गए। जब नेताओं के साथ सेल्फी खिंचवाकर डालना पत्रकारों के लिए स्टेटस सिंबल हो जाए तो पत्रकारिता शेर की खाल में ठूंसी वह भूसी बन जाती है, जिसे रईस नुमाइश के लिए अपने ड्रॉइंग रूम में लगाते हैं।
भारतीय पत्रकारिता का ये पतन अब उसे कभी उठने नहीं देगा। सरकार चाहे जिस पॉलिटिकल पार्टी की हो, अब इसे गुलामों वाला ट्रीटमेंट ही मिलेगा। निजी हाथों में मीडिया की बागडोर देने की कीमत यही है। और Youtube से भी ज्यादा उम्मीद मत रखिए। वह भी अमेरिका में बैठा बनिया हैं, जो बिजनेस के लिए दुनियाभर में अपना जाल बिछा चुका है।
बेहतर हो कि डिजिटल प्लेटफॉर्म पर स्वतंत्र पत्रकारिता करिए, अपनी वेबसाइट बनाकर। अगर पॉलिटिकल मैगजीन को वेबसाइट पर उतारकर उसे ढंग से चलाया जाए, तो वह भी जल्द ऊपर उठ जाएगी। जनता mainstream media की उबाऊ खबरें देखकर पक चुकी है। वह सच जानना चाहती है लेकिन इसे परोसने वाला कोई है नहीं। जनता को खबरों की खबर चाहिए, जिसके लिए पत्रकार जाने जाते हैं।
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