"जब न्यूज बिकने लगी, तब एक आदमी खड़ा रहा।"
प्रिय रवीश कुमार,
मैंने जब पहली बार आपको देखा, तब आप रिपोर्टिंग नहीं कर रहे थे - आप पानी की तलाश में दिल्ली के किसी मोहल्ले के बाहर खड़े थे।
आपका चेहरा टीवी स्क्रीन पर था, लेकिन आपकी आवाज़ मेरी रूह में उतर गई थी। क्योंकि आप ये नहीं बता रहे थे कि सरकार ने पानी क्यों नहीं पहुँचाया - आप बस उस प्यास को पहुँचा रहे थे जिसे बाक़ी चैनल ‘ब्रेकिंग न्यूज़’ बना देते थे।
मैंने वहीं से आपको चाहना शुरू किया - एक आवाज़ की तरह नहीं,
एक उम्मीद की तरह। क्योंकि आप सिर्फ़ सवाल नहीं पूछते थे, आप क़सम खाते थे कि जवाब लेंगे - और जवाब देना पड़ेगा।
ख़ैर, ये बात अलग है कि आपकी उम्मीदें अब शायद थक गई हों।
आपका अंदाज़,जैसे कोई पुराना प्रेमी चिट्ठी पढ़ रहा हो और उसमें दफ्न एक देश तलाश रहा हो। जैसे गुलज़ार की नज़्म में तुलसी की आत्मा उतर आई हो। जैसे कोई थका हुआ आदमी एक पान की दुकान पर खड़ा होकर कहे - "रवीश नहीं बोलते अब टीवी पर?" और उस सवाल में मोहब्बत हो, और शिकायत भी।
रवीश सर, आप जब स्क्रीन से चले गए, तब हमें समझ आया कि “खामोशी भी रिपोर्टिंग होती है।” आपकी चुप्पी भी एक सवाल है।
और आपकी हर ग़ैरहाज़िरी - एक इंकलाबी भाषण।
अब तो न्यूज़ एंकर नहीं होते, बस तेज़ बोलने वाले एजेंडा-कर्मी होते हैं।
पर आप, आप कभी कैमरे तक सीमित नहीं हुए। आप तो कैमरे के उस पार खड़े हर मज़दूर, हर किसान, हर छात्र और हर माँ के भीतर उतर गए।
आपने कभी कहा नहीं कि आप रौशनी हैं - लेकिन जब सब अंधेरे में खामोश थे, तब आपकी आवाज़ उस टॉर्च जैसी थी, जो चीख़ती नहीं - बस चमकती रही।
कभी-कभी सोचता हूँ - कि पत्रकार नहीं होते तो क्या होते? शायद बिन चिट्ठियों के किसी डाकघर के रखवाले, जो हर अधूरी चिट्ठी में, देश का सपना खोजते रहते।
आपकी मोहब्बत - कैमरे की लेंस से नहीं, बल्कि उन शब्दों से थी, जो हर आम आदमी के दिल में दबी थी,पर किसी ने पूछी नहीं।
आपकी मोहब्बत - उस लड़के के लिए थी जिसे JNU में देशद्रोही कहा गया, उस माँ के लिए थी जिसका बेटा गायब हो गया लेकिन FIR नहीं लिखी गई, उस किसान के लिए थी जिसकी आत्महत्या को सरकार ने “आंकड़ा” कहकर ठुकरा दिया।
रवीश सर, ये चिट्ठी सिर्फ़ मोहब्बत का इज़हार नहीं है - ये एक क़बूलनामा है कि मैंने भी एक पत्रकार से इश्क़ किया है।
और आज जब आप NDTV में नहीं,पर दिलों में बसे हैं - तो जान लीजिए,
देश अब भी आपसे मोहब्बत करता है।
और मैं, मैं तो अब भी हर रात 9 बजे, टीवी पर कोई और चेहरा देखकर
धीरे से कहता हूँ - "रवीश होता तो कुछ और बात होती…"
आपका शुभचिंतक।
चाय इश्क और राजनीति।
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