Thursday, September 18, 2025

नरेंद्र मोदी भविष्य में किस तरह याद किए जाएंगे?


🔖 विनोद वर्मा 

बात 1999 की है. मोदी जी का फ़ोन आया था, देशबंधु के दिल्ली दफ़्तर के फ़ोन की घंटी बजी. मैंने फ़ोन उठाया तो दूसरी ओर से आवाज़ आई, “विनोद जी मैं नरेंद्र मोदी बोल रहा हूं.” नमस्कार चमत्कार की औपचारिकता के बाद उन्होंने कहा, “आइए किसी दिन चाय पीते हैं.” बात तय हो गई कि दो दिनों बाद 11, अशोक रोड में मुलाक़ात होगी.


मुझसे कोई विशेष अनुराग नहीं था. वे छत्तीसगढ़ भाजपा के प्रभारी थे और मैं उस समय छत्तीसगढ़ के एक प्रमुख अख़बार देशबंधु के दिल्ली ब्यूरो का प्रमुख था. यानी बातचीत और आमंत्रण विशुद्ध पेशागत था.


प्रमोद महाजन की एक प्रेस कॉन्फ़्रेंस के दौरान उनसे औपचारिक मुलाक़ात हुई थी और मैंने अपना विज़िटिंग कार्ड उन्हें दिया था. 11, अशोक रोड की मुख्य बिल्डिंग के पीछे कुछ अस्थाई कमरे बने थे. पार्टी के बहुत से दिग्गज कहे जाने वाले नेताओं में से कुछ वहां रहते थे. मेरी गोविंदाचार्य जी से भी मुलाक़ातें वहीं हुईं थीं.


तय समय पर मोदी जी मिले. सफ़ेद रंग का हाफ़ शर्ट वाला खादी का शॉर्ट कुर्ता और पायजामा पहने मोदी जी प्रसन्न मुद्रा में मिले. उनका पहला सवाल था, “हमारी पार्टी के लोग आपके अख़बार को द्वेषबंधु क्यों कहते हैं?”


मैंने जो जवाब दिया, पता नहीं उसकी अपेक्षा उन्हें थी या नहीं, पर देशबंधु की मेरी ट्रेनिंग इतनी ही साफ़ बात कहने की थी, “ऐसा है सर कि आप लोग करते हैं सांप्रदायिक राजनीति और देशबंधु अपनी नीतियों में एकदम धर्मनिरपेक्ष अख़बार है. बिना समझौते, लेफ़्ट टू द सेंटर. आप लोगों ने जिसे विवादित ढांचा कहकर गिरा दिया उसे हम बाबरी मस्जिद ही लिखते रहे और अब भी लिखते हैं. तो यह आपको द्वेष की तरह ही दिखता होगा.”

हाज़िर जवाबी में मोदी जी का तब भी कोई सानी न था, “चलिए हम लोग बंधु से काम चला लेंगे.”


हम कोई डेढ़ घंटे बात करते रहे. वे छत्तीसगढ़ को मेरे नज़रिए से समझना चाहते थे और मैं किसी भी अख़बारनवीस की तरह उनसे ख़बरों की टोह लेता रहा. बातों को टालने के लिए वे अक्सर ठहाका लगाकर हंसते और कभी गंभीर मुद्रा बनाकर ऐसी कोई बात कहते जो न यक़ीन करने योग्य थीं और न मैंने यक़ीन किया.


चूंकि तब तक गुजरात दूर था, और छत्तीसगढ़ में हिंसा से बचने के लिए सोफ़े के पीछे छिपने की घटना नहीं हुई थी, इसलिए मोदी जी से पूछने के लिए बहुत कोई अप्रिय सवाल मेरे मन में नहीं थे. और वह कोई औपचारिक साक्षात्कार भी नहीं था. 


अगली बार मिलने के वादे के साथ मैं विदा हुआ. पर हम दोनों जानते थे कि अब हम नहीं मिलने वाले. विचारों में हम दो विपरीत ध्रुव थे और ख़बरों के लिए हम दोनों समझौते को तैयार नहीं थे. पर जाते जाते एक ठहाका भरा वाक्य आज तक याद है, “आप तो मुझसे कोई ख़बर निकाल नहीं सके. डेढ़ घंटा बर्बाद गया आपका.”


बात तो सही थी पर मैंने पत्रकारीय औपचारिकता के साथ कहा, “ख़बरें तो फिर भी निकल जाएंगी सर, आपकी चाय का शुक्रिया.” उसके बाद एक दो औपचारिक मुलाक़ातें हुईं पर वे नमस्कार तक ही रहीं, चमत्कार में तब्दील नहीं हो सकीं.

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मैंने एक बार न्यूज़ रूम में अपने साथियों को यह क़िस्सा सुना रहा था तो एक युवा साथी ने कौतुहल से पूछा, “आपको अफ़सोस नहीं होता सर कि तब आपने दोस्ती बढ़ा ली होती तो आज आपको प्रधानमंत्री पहचानते होते”


सच कहूं तो 2002 के बाद के नरेंद्र मोदी जी से मुलाक़ात की न कभी इच्छा हुई और न इसकी कोशिश की. गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में और फिर पिछले 11 साल से प्रधानमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी जी को देखना और समझना एक अच्छा पत्रकारीय अनुभव है. राजनीति में आने के बावजूद मैं उन्हें पुराने पत्रकार की तरह ही देखता रहा. उत्सुकता से.


आज जब वे 75 वर्ष पूरे कर रहे हैं, यह देखना दिलचस्प है कि वे क्या थे और क्या हो गए. यह ठीक है कि वर्ष 1999-2000 में नरेंद्र मोदी को देखकर यह जानना संभव नहीं था कि वे इतनी दूर तक की राजनीतिक यात्रा पूरी करेंगे. पर उनकी राजनीतिक यात्रा में एक तरह की रैखिकता है. अंग्रेज़ी में जिसे कहते हैं लिनियरिटी.


संगठन से चुनावी राजनीति या सत्ता में आने के बाद उनका राजनीतिक चरित्र बदलता हुआ नहीं दिखता. कुटिल, चालाक और निष्ठुर. इस पर तो किताबें लिखी जा रही हैं और लिखी जाएंगीं.

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फ़िलहाल आज यह विश्लेषण कि वे भविष्य में किस तरह याद किए जाएंगे? यदि उन्मादी हिंदुत्व के अनुयायियों की बात न करें. उनके लिए तो नरेंद्र मोदी वह कर रहे हैं जो आरएसएस की शाखाओं का दिवास्वप्न था. भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने के लिए जो भी ज़रूरी क़दम हो सकते थे, कमोबेश वो सारे क़दम मोदी जी के नेतृत्व में उठाए गए हैं. भारत देश का धर्म और संप्रदाय के नाम पर एक और उर्ध्वाधर विभाजन तो पिछले एक दशक में कर ही दिया गया है.


नेहरू से लेकर इंदिरा, राजीव गांधी, वीपी सिंह से लेकर नरसिंह राव तक और अटल बिहारी वाजपेयी से लेकर मनमोहन सिंह तक हर प्रधानमंत्री के कार्यकाल को किसी एक बात के लिए आप याद कर सकते हैं.


नेहरू को आधुनिक भारत की नींव रखने के लिए जिसमें बड़े बांध, बड़े संयंत्रों, आईआईटी, एम्स, आईआईएम की स्थापना से लेकर इसरो तक, शास्त्री जी के छोटे से कार्यकाल को ‘जय जवान जय किसान’ के लिए याद किया जाता है. इंदिरा गांधी के कार्यकाल को हरित क्रांति से लेकर कोयला, पेट्रोलियम और बैंकों के राष्ट्रीयकरण के लिए याद रखा जाएगा. राजीव गांधी कंप्यूटर और संचार क्रांति के लिए, पंचायती राज का सपना देखने के लिए इतिहास के पन्नों में दर्ज रहेंगे.


वीपी सिंह मंडल कमीशन की रिपोर्ट लागू करने के लिए और पीवी नरसिंह राव इस देश की अर्थव्यवस्था को बदलने के लिए याद रखे जाएंगे.

अटल बिहारी वाजपेयी देश की ग्रामीण सड़कों को नया जीवन देने के लिए और गोल्डन क्वाड्रिलेट्रल जैसी महत्वाकांक्षी परियोजनाओं के लिए याद रहेंगे तो मनमोहन सिंह मनरेगा से लेकर खाद्य सुरक्षा, भू-अधिकार क़ानून, स्वास्थ्य और शिक्षा सुरक्षा क़ानून और सूचना के अधिकार के लिए दर्ज रहेंगे.


पर नरेंद्र मोदी जी को क्यों याद किया जाएगा? अब तक के कार्यकाल में उन्होंने ऐसी कोई इबारत नहीं लिखी है जो इतिहास में दर्ज हो और देश को किसी निर्णायक मोड़ तक ले जाती हो. ऐसा कोई निर्णय हो, ऐसी कोई नीति हो तो आप ज़रूर बताइएगा. 


नरेंद्र मोदी जब आए तो देश को बदलना चाहते थे. देश की बड़ी आबादी ने इस पर यक़ीन भी किया. पर कोई भी बात धरातल पर ठोस रूप से नहीं उतर सकी.


आप नेहरू के कार्यकाल में चीन से हुई हार की शर्मिंदगी नहीं हटा सकते, इंदिरा गांधी के कार्यकाल से आपातकाल का धब्बा नहीं मिटा सकते. चंद्रशेखर जी की सरकार से सोना गिरवी रखने का उल्लेख नहीं मिटा सकते. पीवी नरसिंहराव के प्रधानमंत्री रहते बाबरी मस्जिद ढहा दी गई, ये कौन भूल सकता है.


ऐसे न भूलने के लिए अपने पूर्ववर्ती प्रधानमंत्रियों की तुलना में नरेंद्र मोदी बड़ी उपलब्धियां हासिल कर चुके हैं. पहले नोटबंदी, फिर कोरोना के दौरान अप्रत्याशित लॉकडाउन से लेकर ऑक्सीजन की भीषण कमी और तालीथाली बजवाने तक वे हर कुछ के लिए अकेले ज़िम्मेदार ठहराए जाएंगे. जीएसटी लागू करने के ढंग और बरसों बाद उसमें नाटकीय सुधार भी उनके खाते में दर्ज होंगे.


जब भी विदेश नीति की बात आएगी तो ऑपरेशन सिंदूर की बात होगी और अमरीकी राष्ट्रपति का हस्तक्षेप हर पन्ने पर दर्ज दिखेगा. इन 11 सालों में संवैधानिक संस्थाओं का जिस तरह से ह्रास हुआ है वह भी हमेशा याद रखा जाएगा. अभी उनके कार्यकाल को चार साल बचे हैं. अगर वे वानप्रस्थ में जाने से बच गए तो एक दो मौक़ा हो सकता है जब वे विदूषकीय नाटकीयता से निकलकर इतिहास में दर्ज हो जाने के लिए कुछ ठोस कर सकें.


पूरे देश में भाजपा को चुनाव जितवाने का जुनून छोड़कर उन्हें केंद्र की अपनी सरकार की छवि सुधारने के लिए काम करना चाहिए. नरेंद्र मोदी से बेहतर कौन जान सकता है कि इतिहास हर बार उदार नहीं होता, वह कई बार बहुत निर्ममता से अपने पन्नों पर इबारत दर्ज करता है.

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