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हिंदी फिल्मों के एक लोकप्रिय अभिनेता की मौत और मुर्दाखोर मीडिया का 'जाने भी दो यारों'

राकेश कायस्थ

डार्क कॉमेडी की सबसे बड़ी फ़िल्मों में एक `जाने भी दो यारों’ का आख़िरी सीन आप सबको याद होगा। लाश बन चुके कमिश्नर डीमेलो यानी सतीश की डेड बॉडी इधर से उधर घुमाई जाती है और मुर्दा जिस्म के सौदागर उसके चारों तरफ़ तरह-तरह के स्वाँग करते हैं।


मुर्दा जिस्म को साड़ी पहनाकर स्टेज पर लाया जाता है और महाभारत शुरू हो जाता है। फिर अचानक सीन बदलता है और सलीम अनारकली का खेल शुरु हो जाता है। द्रौपदी बनाये गये डीमेलो की डेड बॉडी को अब अनारकली बना दिया जाता है। सुशांत सिंह राजपूत के मृत शरीर के साथ समाज और मीडिया ने महीनों तक यही हरकत की। टीआरपी के गिद्ध भोज में डटे न्यूज़ चैनलों ने उसे अपनी सुविधा से कभी नायक तो कभी खलनायक, कभी ड्रग एडिक्ट तो कभी विक्टिम बनाया।


मौत के बाद भी हर रोज़ सुशांत नये तरीक़े से सुशांत की हत्या होती रही और उसकी बोटियाँ मीडिया के चील-कौव्वों में बंटती रही। सबसे अजीब बात ये थी कि बोटियाँ बाँटने वालों में वो तमाम लोग सबसे आगे थे, जो सुशांत को इंसाफ़ दिलाने का दावा कर रहे थे। सुशांत की असामायिक मौत ने हम जैसे प्रशंसकों को भीतर से हिलाकर रख दिया। धोनी पर बनी उनकी फ़िल्म मेरे बच्चों को बहुत पसंद थी। सुशांत की मौत के बाद मेरे घर में वो फ़िल्म एक बार भी नहीं चली।


मुझे इस बात से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि सुशांत अपनी असली ज़िंदगी में चरसी थे या उनकी एक से ज़्यादा गर्ल फ़्रेंड थी। मेरा रिश्ता उनसे पर्दे पर निभाये गये किरदारों की वजह से बना था और वो रिश्ता पहले की तरह रहेगा भले ही मैं उनकी फ़िल्में देखने की हिम्मत बहुत वक़्त तक ना जुटा पाऊँ। अगर सुशांत की हत्या हुई तो मुझे गहरा अफ़सोस होता और न्याय मिलता तो कुछ संतोष होता। आत्महत्या का भी उतना ही अफ़सोस है। एक संभावना से भरी ज़िंदगी का अचानक ख़त्म होना इतना तकलीफ़देह है कि जब भी उसका नाम आएगा दिल में एक टीस उठेगी, जैसी दिव्या भारती के लिए उठती है। 


दुनिया कोई सभ्य समाज ये कैसे भूल सकता है कि मरे हुए आदमी भी एक निजता होती है। उस प्राइवेसी को रोज़ सुबह से शाम तक तार-तार करने परले दर्जे की नीचता है, ये बात मीडिया और समाज कब समझेंगे, शायद कभी नहीं? हम एक ही तरह की विडंबना को बार-बार दोहराया जाने को अभिशप्त हैं। सुशांत जो हुआ सो हुआ रिया चक्रवर्ती का हिसाब कौन देगा, जिसके पूरे वजूद को न्यूज़ चैनलों के एंकर भेड़ियों की तरह चबा गये? अगर कोई चैनल ये सब करके नंबर वन बना है तो इसका मतलब हमारा समाज मुर्दाखोरों से भरा हुआ है।