हमारी, आपकी, सबकी आवाज

जब सरकार के विरोध में छाती तानकर खड़े होने वाले पत्रकारों की इज़्ज़त थी और 'पुलिस का दलाल' पत्रकार के लिए सबसे बड़ी गाली थी!

प्रभात डबराल

पत्रकारिता शुरू किए डेढ़ साल भी नही हुआ था कि तब की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने इमर्जेन्सी लगा दी. सेन्सरशिप लग गई. आदेश हो गया कि वही छपेगा जो सरकार चाहेगी. छापने से पहले खबरों को सरकारी सेन्सर अधिकारियों से क्लियर कराने का सिलसिला शुरू हो गया.


बहुत बुरे दिन थे. दो चार कांग्रेस समर्थक पत्रकारों को छोड़कर शायद ही कोई पत्रकार होगा जो इस माहौल से दुखी ना रहा हो. पेट्रीयट और नैशनल हेरल्ड जैसे कांग्रेस समर्थक अख़बारों के भी ज़्यादातर पत्रकार सेन्सरशिप से खुश नहीं थे और गाहे बगाहे अपना ग़ुस्सा प्रकट भी कर देते थे. ये वो ज़माना था जब सरकार के विरोध में छाती तान कर खड़े होने वाले पत्रकारों की इज़्ज़त थी. हमारे वरिष्ठ हमें कहते थे कि सरकार का प्रचार करने को उनका अपना अमला है, पी आइ बी है, आकाशवाणी है, दूरदर्शन है - तुम्हें प्रचार नहीं करना, तुम वॉचडॉग हो तुम्हारा काम है ये देखना कि सरकार कोई ग़लत काम ना करने पाए.


विश्वास मानिए उस जमाने मे सरकार समर्थक पत्रकारों को हेय दृष्टि से देखा जाता था- पत्रकारों के बीच ही नहीं समाज में भी उनका सम्मान नहीं था. ऐसे लोग थे, पर अलग से दिखाई देते थे. ये वो ज़माना था जब सरकारी प्रेस रिलीज़ का सारे कोणों से पोस्ट मार्टम किए बग़ैर छापा जाना अघोषित अपराध  था. अगर किसी प्रेस रिलीज़ का कोई पैरा ज्यों का त्यों छप गया तो उस रिपोर्टर या सब एडिटर की खूब हंसी उड़ती थी.


दुर्भाग्य देखिए इमर्जन्सी में वो सब करना पड़ा जो हम नहीं करना चाहते थे. फिर भी गाहे बगाहे पत्रकारों की खीज दिख ही जाती थी. आज स्थिति अलग है. इमर्जन्सी में जो काम डंडे के बल पर हो रहा था, आज स्वयमसेवा के रूप में हो रहा है. प्लीज मुझे ये मत बताइए कि सबकुछ मालिकों के दबाव में हो रहा है. नए चेनल TV Nine के अलावा किसी एक सम्पादक या संवाद दाता का नाम बताइए जिन्हें विरोध के स्वर के कारण निकाला गया. दो चार बहादुरों ने इस्तीफ़ा ज़रूर दिया है. 


विरोध का स्वर कहीं तो  दिखना चाहिए .इमर्जन्सी में पत्रकारों  बीच खबरें चलती रहती थीं- फ़लाँ ने  ये कर दिया, फ़लाँ ने ये करने   से  मना कर दिया. आज सन्नाटा है. सम्पादकों और वरिष्ठ पत्रकारों में सरकार का प्रचार करने की होड़ लगी है- सिर्फ़ टीवी ही नही अख़बारों में भी. बीसियों उदाहरण हैं. 


सरकार को कुछ कहने की ज़रूरत ही नही है. बस इशारा भर करना है. बाकी काम विशेष संवाददाता और ऐंकर कर दे रहे हैं. लद्दाख की रिपोर्टिंग देख लीजिए. अख़बारों में ऐसा मंजर खींचते हैं मानों संवाददाता पेनोंग झील से रिपोर्टिंग कर रहा हो. 


लद्दाख तो फिर भी समझ में आता है. देश का सवाल है. युद्ध के समय निष्पक्ष नही रहा जाता. लेकिन शाहींन बाग़, दिल्ली दंगा, भीमा कोरेगाँव, तबलीगी जमात का टंटा और रिया/कंगना - सारे अख़बार, टीवी वाले उसी कोण से इन घटनाओं को देख रहे हैं जैसे पुलिस, सीबीआइ और एन आइ ए चाहते हैं. हमारे पत्रकार पुलिस की जाँच की समीक्षा करने के स्थान पर उनकी मदद करते दिखाई दे रहे हैं.


एक ज़माना था जब “पुलिस का दलाल” पत्रकार के लिए सबसे बड़ी गाली थी। आज जिसे देखो वो ये तमग़ा गले  में लटकाए इतरा रहा है...सरकार के दलाल सेलेब्रिटी माने जा रहे हैं. जय हिंद.