हमारी, आपकी, सबकी आवाज

न्यूज़ चैनल देखना बंद कीजिए और अपने उन पुरखों को याद कीजिए जिन्होंने एक धर्मनिरपेक्ष गणतंत्रात्मक भारत के लिए कुर्बानी दी थी

पंकज श्रीवास्तव

इलाहाबाद में स्वराज भवन के फाटक के ऐन सामने हमारे प्रगतिशील छात्र संगठन, जो आगे चलकर आइसा बना, का दफ्तर था। दफ़्तर की दीवार से सटे एक परिसर में ही स्थानीय ख़ुफ़िया विभाग यानी L.I.U का दफ़्तर भी था। हम लोग नुक्कड़ पर इस विभाग के सिपाहियों के साथ चाय पीते थे। वे ग़रीब थे और समझते थे कि हम लोग उनकी ही बात उठाते हैं। हमारे भाषणों में 'अपनी वर्दी के नीचे फटी बनियान देखो' जैसे जुमले आम थे, जिसे सुनकर वे ठिठक जाते थे। हमारे पर्चों को ही कई बार अपनी रिपोर्ट बना देते थे जिनमें स्वाभाविक तौर पर हम हैसियत से ज़्यादा नज़र आते थे।


बगल ही में कर्नलगंज थाना था जो हमारे कार्यक्रमों की जानकारी भर लेता था। धरना, प्रदर्शन, पुतला फूंकना, जुलूस, नारा जैसी चीज़ों को लोकतंत्र की स्वाभाविक अभिव्यक्तियां माना जाता थी। जब तक मामला हिंसक रूप न ले, पुलिस हस्तक्षेप से बचती थी।


इस सबका भरपूर लाभ आरएसएस, बीजेपी और उनसे जुड़े संगठन भी उठाते थे। बहरहाल, हमारे निशाने पर कांग्रेस थी जो हमारे मुताबिक अपने समाजवादी संकल्पों को भुला बैठी थी। जो कुछ हमें मिला था, वह अधूरा था, इसलिए हम आज़ादी के आंदोलन में लिये गये संकल्पों को मुकम्मल करने की लड़ाई अपना फ़र्ज़ समझते थे। फ़ीसवृद्धि से लेकर रोज़गार तक के मुद्दों पर संघर्ष आम था और तमाम एक दिनी हिरासतों के बीच एक बार क़रीब दस दिन नैनी जेल में रहना हुआ तो सीना गर्व से चौड़ा हो गया था। वहां पं.नेहरू सालों क़ैद रहे थे और हमने जवाहर बैरक के सामने खड़े होकर शिकायती लहजे में पूछा भी था- 'चाचा, आपकी पार्टी किधर जा रही है?'


दरअसल, हम एक बड़ी रेखा खींचकर लोगों को बताना चाहते थे कि वे बेहतर के हकदार हैं। लेकिन अफ़सोस, तब जो कुछ भी था, आज वह एक बड़ी उपलब्धि लगता है। आज लड़ाई कुछ नया मांगने की नहीं, जो मिला था, उसे बचाने की हो गयी है। यहां तक कि नारे लगाने और धरना प्रदर्शन की आज़ादी भी न रही। पुलिस अगर राहुल- प्रियंका के साथ बर्बरता कर रही है, तो दूसरों की बात ही क्या!


लोकतंत्र की यह दुर्दशा संयोग नहीं है। आज जिस आरएसएस की सरकार है, वह लोकतंत्र को एक आयातित विचार मानता है। पुरुष मुखिया के फ़ैसले से बंधा हिंदू परिवार उसका आदर्श है। वह ख़ुद 'एकचालकानुवर्तित" सिद्धांत पर चलता है जहां सरसंघचालक का आदेश अंतिम है। सोचने का हक़ उसे ही है। 


तो अब इसके अलावा क्या रास्ता बचता है कि इस फासीवादी निज़ाम के ख़िलाफ़ संवैधानिक संकल्पों के प्रति प्रतिबद्ध एक राष्ट्रीय मोर्चा बने जिसमें सभी वामपंथी और समाजवादी धाराओं के साथ कांग्रेस भी अहम भूमिका निभाये। गांधी परिवार पर अब वंशवाद का आरोप हास्यास्पद है। राजीव गांधी 31 साल पहले सत्ता से बाहर हुए थे और बीच में 15 साल कांग्रेस की सत्ता के बावजूद इस परिवार का कोई व्यक्ति प्रधानमंत्री नहीं रहा जबकि बन सकता था। आज राहुल और प्रियंका सत्ता नहीं संघर्ष के वंशवाद के प्रतीक हैं। 


क्या हम यह लिखकर बतौर पत्रकार 'निष्पक्षता' को  छोड़ रहे हैं? बिल्कुल नहीं! याद कीजिए, हिंदी पत्रकारिता के शिरोमणि कहे जाने वाले गणेश शंकर विद्यार्थी नमक आंदोलन के दौरान यूपी कांग्रेस के डिक्टेटर थे और प्रेमचंद बता गये हैं कि 'शासकों के ख़िलाफ़ जंग में हम पत्रकार, शासितों के वकील हैं।' हमारे लिए तथ्य पवित्र हैं पर भेड़ और भेड़िये के बीच तटस्थता संभव नहीं हैं। हम पत्रकार हैं, टाइपिस्ट नहीं।


वह अंग्रेज़ों का राज था, और आज उनके तलवे चाटने वालों और गांधीजी के हत्यारों का महिमा मंडन करने वालों का राज है। जैसी लड़ाई तब हुई थी, वैसी की दरकार फिर है। गोरों को भगाया था, अब काले अंग्रेज़ों को भी भगायेंगे! भगत सिंह का फांसी के तख्ते से अंतिम संदेश यही तो था!!


तो, न्यूज़ चैनल देखना बंद कीजिए और अपने उन पुरखों को याद कीजिए  जिन्होंने एक आधुनिक, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष गणतंत्रात्मक भारत के लिए कुर्बानी दी थी। आपके घर में माल्यार्पित फोटो-फ्रेम में मुस्करा रहे आपके दादाजी ने यही किया था, अब बारी आपकी है!