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सूर्यकांत त्रिपाठी निराला के भक्त बनकर कंवल भारती पर आग-बबूला होने वालों की बेचैनी दिलचस्प है

धीरेश सैनी

सूर्यकांत त्रिपाठी निराला कई तरह से हिन्दी के आदि कवि हैं। भाषा, शिल्प और संवेदना के लिहाज़ से और जिन्हें काव्यधारा कहा जाता है, उनके लिहाज़ से, निराला के यहाँ इतने रंग हैं और इतनी विकास यात्राएं हैं कि आश्चर्य होता है। सबसे बड़ी चीज़ है उनकी निरंतर विकलता जो उन्हें दुनियावी तौर पर नाकामी देती है, अवसाद और भयानक मानसिक आघात की ओर ले जाती है पर कवि के रूप में उन्हें निराला बनाती है। वे एक कवि हैं, कवि होने की हर-दम कीमत चुकाते हुए। 


उन्हें कई तरह से बेतरह पसंद करते हुए यह कहूँ कि वे ब्राह्मणवादी नहीं थे या वे इस बीमारी से मुक्त थे, कोरे झूठ के सिवा क्या हो सकता है? कँवल भारती ने इस सच को दर्ज़ कर दिया तो जैसी आग लगी हुई है, उससे पता चलता है कि हिन्दी की मुख्यधारा कितनी कट्टर जातिवादी है। निराला जो थे अपनी बेचैनियों के साथ थे। जिन तुलसीदास पर उनकी कविता का ज़िक्र आ रहा है, वर्ण व्यवस्था के समर्थक, स्त्रीद्वेषी, वे जो भी थे, उसे जाहिर करते हुए थे। तुलसीदास के लिए भी जो मसला नहीं था, उनके परवर्ती निराला जब उन पर कविता लिखने बैठे तो सबसे पहले वही मसला था - मुसलमान राज़। 


घृणा सिखाने वाले निराला के अपने पक्के संस्कार थे और उनके आसपास और उनके सामने वो सब भाई-बिरादर और उनका लिखा रहा होगा जो इस तरह की नज़र पैदा करता था। एक ब्राह्मण हिन्दू कवि जिस गंदगी से जूझता था, जिसे खारिज करने की कोशिश करता था, उसमें डूबता-नहाता भी था। इस सबके बीच उनकी विकलता ही तो जो उन्हें महत्वपूर्ण बनाती है। उनके भक्त बनकर कँवल भारती पर आग-बबूला होने वालों की बेचैनी दिलचस्प है। 


वे न तुलसीदास के ज़माने के हैं, न निराला के ज़माने के। वे आधुनिक, प्रगतिशील, बराबरी के ज़्यादा स्पष्ट विमर्शों-संघर्षों से निकल कर आए कवि-रचनाकार हैं लेकिन उनकी सारी बेचैनियां इन सबको किनारे पर रखकर हर हाल में उसी वर्णव्यवस्था की रक्षा करने के लिए पैदा होती हैं। जिन सामाजिक समस्याओं से कँवल भारती गुज़रे हैं, उन समस्याओं से ऐसे जन्मजात महान लोगों का कभी सामना नहीं होता। बल्कि वे जानते हैं कि उनका पीढ़ी दर पीढ़ी महत्व इन समस्याओं के बने रहने, उनमें आध्यात्मिकता और रहस्य सिद्ध करने और इस सब को लेकर उठने वाले किसी भी सवाल को लेकर हमलावर हो जाने में ही है।


ऐसे मौक़ों पर ही लिंग आधारित सारे शोषण भुलाकर जाति आधारित स्त्री-पुरुष एकता के 'विहंगम' दृश्य भी देखे जा सकते हैं। जिन कुतर्कों के आधार पर कोई स्त्रीवादी आरक्षण को लेकर घृणा उड़ेलती होगी, उन्हीं कुतर्कों को दोहराकर कँवल भारती जैसे लेखक अनपढ़ और जातिवादी ठहरा दिए जाते हैं। यह अंबेडकर के ज़माने में भी था और आज भी। दिल्ली यूनिवर्सिटी के उस कुख्यात वामपंथी मास्टर और आलोचक ने भी दो-चार दिनों पहले दो मज़ेदार मान्यताएं वायरल की थीं। एक- फ़ासीवाद के लिए वे वामपंथी ज़िम्मेदार हैं जो तुलसी को लेकर सवाल करते हैं मतलब जो हिन्दू नहीं हो पाए। दो- जातिवाद के लिए दलित-पिछड़ी जातियां ज़िम्मेदार हैं।


बड़ा अजीब है। फ़ासीवाद, समतावाद, वामपंथ, स्त्रीवाद सब कुछ जिनके नेतृत्व में चलता है, वे ही दलितों को हर समस्या के लिए ज़िम्मेदार ठहराते हैं। दलित उत्पीड़न के लिए भी। तो एक शेर हो जाए...

"नाहक़ हम मजबूरों पर ये तोहमत है मुख़्तारी की 

चाहते हैं सो आप करें हैं हम को अबस बदनाम किया"