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न्यूज़ चैनलों की टीआरपी के पीछे बड़ा खेल है, मुंबई से जो भी सामने आया उसमें ना कुछ नया है और ना ही चौंकाने वाला

डॉ. शिल्पी झा

टीआरपी का तमाशा न्यूज़ चैनलों के इतिहास जितना ही पुराना है और इसका सबसे बड़ा खामियाजा अच्छी रिपोर्टिंग और रिपोर्टरों ने भुगता है। आमदनी के लिहाज से खबरिया चैनलों के लिए ‘क्या दिखा रहे हैं’ से ज्यादा ज़रूरी हमेशा से ही ‘कितना दिख रहे हैं’ रहा है। 


ये सर्वविदित है कि किसी भी न्यूज़ चैलन को चलाने में सबसे ज़्यादा खर्च उसके डिस्ट्रीब्यूशन से आता है और इसकी भरपाई हमेशा ही एडिटोरियल खर्चों में कटौती करके की जाती है। जब एनालॉग सिग्नलों का दौर था तो चैनल केबल ऑपरेटरों को पैसा देकर ठीक प्राइम टाइम में खुद को शुरुआती बैंड में और प्रतियोगी चैनलों को पीछे की ओर ठेलने का कारस्तानी सीना ठोंक कर किया करते थे। 


इस खेल की शुरुआत रजत शर्मा के चैनल ने की थी और बाद में सब उस कीचड़ में लोटे। प्राइम प्लेस्टमेंट के लिए पहला चेक एनडीटीवी की ओर से ही गया था और बाद में उसी एनडीटीवी ने न्यूयॉर्क को कोर्ट में रेटिंग एजेंसी ए सी नील्सन के खिलाफ केस किया था जिसे पहली सुनवाई में खारिज कर दिया गया। टीआरपी को लेकर एनडीटीवी का रोना तभी से चल रहा है, हालाँकि उसके बाद रेटिंग एजेंसी भी बदली गई। 


फिलहाल जो BARC चैनलों की टीआरपी के आंकड़े जारी करती है वो कोई बाहरी संस्था नही बल्कि टीवी चैनलों, विज्ञापन एजेंसियों और विज्ञापन देने वाली कंपनियों के मिले-जुले मालिकाना हक से बनी है और पहले के मुकाबले तीन गुना घरों में अपना पीपुलमीटर लगाने का दावा करती है। अब चूँकि सब कुछ डिजीटल है इसलिए पैसे देकर चैनल की जगह बदलवाने का काम नहीं हो सकता, अब प्लेसमेंट के लिए डीटीएच और डिजीटल केबल कंपनियाँ सामने से मोटी रकम वसूलती हैं। 


दो नामी-गिरामी चैनलों के बीच में जगह पाने के लिए नए चैनल करोड़ों खर्च करते हैं ताकि सर्फिंग के दौरान ही सही, दर्शकों की नज़र उनपर पड़े। दिन के पाँच सौ रुपए को मुकाबले अगर कोई परिवार दिन भर उनका चैनल लगाकर रहने को तैयार हो जाए जो रिपब्लिक क्या कोई भी चैनल खुशी-खुशी मान जाएगा। टीवी चैनलों ने कभी भी ये पता करने के कोशिश नहीं छोड़ी कि ये पीपुलमीटर किन घरों में लगा है, इसके पहले भी कई बड़े चैनलों के ऊपर ये आरोप लगे हैं। पुलिसिया कार्रवाई पहली बार हुई है क्योंकि इसके पीछे खेल भी बड़ा है।