हमारी, आपकी, सबकी आवाज

मोहब्बतें: जिसकी पटकथा पर्दे पर उतारने से पहले ही रद्दी की टोकरी में फेंक दी जानी चाहिए थी, उसके 20 बरसों का जश्न हो रहा है!

➤ दिलीप कुमार कापसे

आज 'मोहब्बतें' की रिलीज़ को 20 साल पूरे हो गए हैं। लोग इस फ़िल्म की रिलीज़ के 20वें साल को एक इवेंट बना चुके हैं। एक ऐसी फ़िल्म, जिसकी पटकथा पर्दे पर उतारे जाने से पहले ही रद्दी की टोकरी में फेंक दी जानी चाहिए थी, उसके 20 बरसों का जश्न हो रहा है।


भोपाल की एक टॉकीज में से जब मैं ये फ़िल्म देखकर निकला था, तो मेरे सिर में भारी दर्द हो रहा था। कान के पीछे ठक-ठक की आवाज़ आ रही थी, जैसे कोई कील ठोक रहा हो। मुझे समझ नहीं आ रहा था कि मैं आख़िर देखकर क्या निकला हूँ। आदित्य चोपड़ा की बड़ी औसत कहानी व कमज़ोर निर्देशन वाली इस फ़िल्म में इतने छिद्र थे कि उस वक़्त 17 बरस का रहा मेरे जैसा फ़िल्म प्रेमी भी उकता गया था। 


पूरे पौने चार घंटे की बकवास को 2000 की बहुप्रतीक्षित फ़िल्म कहकर प्रचारित किया गया था, जो कि अमिताभ  बच्चन की लाउड और शाहरुख़ ख़ान की ओवर एक्टिंग का अजीब नमूना बनकर उभरी थी। तीन युवा लड़के व लड़कियों के साथ ऐश्वर्या राय की "आत्मा" भी इस लचर और बेसिर पैर की कहानी का हिस्सा थी। जिमी शेरगिल को छोड़ दिया जाए, तो बाकी सब लोग बर्दाश्त के बाहर थे। अनुपम खेर और अर्चना पूरन सिंह समेत दर्जन भर सहायक किरदार ऐसे ज़बरदस्ती ठूंस दिए गए थे, जैसे कि सिटी बस में लोग ठूंसे जाते हैं।


उसी वर्ष की शुरुआत में युवा अभिनता ऋतिक रोशन को मिली चमत्कारिक सफलता के बाद महसूस हो रहे दबाव का ही असर था कि शाहरुख़ ख़ान को ऐश्वर्या राय से भी ज़्यादा गुलाबी होंठों के साथ इसके गानों में रोमांस करते नज़र आना पड़ा। 20 बरस बाद भी मैं समझ नहीं पाया हूँ कि वो आख़िर किस शैली का अभिनय था, जो उन्होंने अपने हर सीन में किया था। ख़ासकर क्लाइमेक्स में जो संवाद अदायगी और अभिनय उन्होंने बच्चन के किरदार के सामने की थी, आज करते तो लाखों मीम्स बन जाते। 


अमिताभ बच्चन के किरदार को इतना लाउड रखा गया था, जैसे कि स्कूल का प्रिंसिपल नहीं किसी अफ्रीकी देश का तानाशाह हो। आदित्य ने अपनी पहली फ़िल्म में से बाबूजी यानी अमरीश पुरी को उठाकर यहां अमिताभ के तौर पर बिठा दिया था, प्रिंसिपल बनाकर। याद आया, दर्जनों एक्टर्स भी भीड़ में कहीं अमरीश पुरी ने भी कोई रोल निभाया था। शायद प्रीति के ससुर का। फ़िल्म का बड़ा हिस्सा अमिताभ और शाहरुख़ के बीच रखे गए भारी भरकम डायलॉग्स में ही ख़र्च हो गया था। बचे हुए हिस्से में गाने और बाकी एक्टर्स की भीड़ द्वारा की गई अति नाटकीयता थी। 


फॉर्मूला भी ग़ज़ब कमाल था। कम कपड़ों में शमिता शेट्टी थी, कम अक़्ल के साथ किम शर्मा और टिपिकल इंडियन मेलो ड्रामा के साथ प्रीति झांगियानी। हमारी हिंदी फिल्मों में युवा लड़की के जितने स्टीरियोटाइप किरदार हो सकते हैं, वो सब आदित्य ने भर लिए थे। 


"मासूम" वाले जुगल हंसराज 11 बरस की उम्र में ज़्यादा बेहतर अभिनय दिखा चुके थे। इस फ़िल्म में तो वो व्यर्थ ही गए। उदय चोपड़ा अगर चाहे तो आज भी इस फ़िल्म में अपनी एक्टिंग के लिए दर्शकों से माफ़ी मांग सकते हैं। भारी नाटकीयता और तमाशे के बीच जिमी शेरगिल तब भी राहत की बात थे। पौने चार घंटे के उस सिर दर्द में वो मलहम की तरह आते थे। 


आदित्य चोपड़ा ने 'दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे' के बाद 5 साल लिए थे अगली फ़िल्म के लिये, लेकिन 'मोहब्बतें' देखकर कौन मूर्ख ये मानेगा कि इसके पीछे चार या पांच बरस की मेहनत रही होगी। मतलब इतने बरस लेकर भी 'मोहब्बतें' जैसी पटकथा लिखी गयी हो, तो आप जानिए कि लिखने वाला कम से कम लेखक तो नहीं है। जितने भी स्टार हो सकते थे, सबको भरने के लिए बस सीन ही तैयार किये हैं, इसे पटकथा तो नहीं ही कहेंगे। 


और हाँ, हर मेलोड्रामे के बाद फ़िल्म में एक गाना भी था। वो गाने, जो आदमी टीवी पर पहले ही देख चुका था और अब पर्दे पर भी 50 मिनट उसे दोबारा से वही देखना था। दर्शकों ने पैसे फ़िल्म देखने के लिए दिए थे, लेकिन एक भाग तो उनको म्यूज़िक वीडियो ही दिखाए गए। बीच में रह रहकर पत्ते भी उड़ाए गए। 


फ़िल्म का संगीत बड़ा हिट हुआ था। यशराज की फ़िल्मों का संगीत हमेशा पॉपुलर हुआ है। इस फ़िल्म के म्यूज़िक में भी ऐसा कोई साज़ न बचा था, गानों में जिसका पीस न रखा गया हो। आप नगाड़ा भी सुन लो, ढोल भी और वायलिन भी। ये सब कुछ एक ही अल्बम में, कहीं और कुछ सुनने की ज़रूरत ही नहीं रह जाती। 


दोस्तों को फ़िल्म बड़ी पसन्द आयी थी। क्यों आयी थी, ये मेरे लिए अब भी रहस्य है। राज आर्यन जैसा नमूना कहाँ पाया जाता है भला? नारायण शंकर तो फिर भी प्रचलित भारतीय बूढ़ों का कैरिकेचर माना जा सकता है, पर राज आर्यन? 


आदित्य चोपड़ा की 'मोहब्बतें' फ़िल्म स्कूलों में पढ़ाये जाने का विषय है। इससे नए फ़िल्म प्रेमी और छात्र जान सकेंगे कि हिंदी सिनेमा पर लम्बा ग्रहण कैसे और क्यों लगा रहा और क्यों विश्व सिनेमा के पटल पर दूसरी बड़ी आबादी वाला देश 100 बरस बाद भी बौना ही रह गया। "मधुमती" के दिलीप कुमार के कंधे से उतारकर जो स्वेटर शाहरुख़ के कंधे पर डाला गया था, वो भी एकदम ग़ज़ब का ओरिजनल स्टाइल था।