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टीआरपी की होड़ में देश के न्यूज चैनल पहले भी कंटेंट की अनदेखी करते थे और आज भी वही सब चल रहा है

संजीव श्रीवास्तव

न्यूज चैनलों की साप्ताहिक TRP हर हफ्ते मन में सस्पेंस थ्रिलर का भाव पैदा करने वाला मीटर है, इसका प्रभाव अपने आप में काफी मनोरंजक भी है। हम दसेक साल पहले भी इस साप्ताहिक टीआरपी का हंसी खेल उड़ाने वाले तरीकों का सामना कर चुके हैं.


उस दौर में न्यूज के बीच होटलों के कमरों में सीसीटीवी में दर्ज नामचीनों के सेक्स टेप, नागनागिनों की नूराकुश्ती, भूत भभूत का भयानकवाद, कॉमेडी शोज की लंबी लंबी क्लिप्स, फर्जी बाबाओं के प्रायोजित टेलीब्रांड शो आदि धड़ल्ले से दिखाये जाते थे. उनको देखने वालों की संख्या भी किसी न्यूज चैनल की टीआरपी का हिस्सा होती थी और कहा जाता था कि फलां चैनल फलां नंबर पर है। 


आज फिर वही हो रहा है। कौन कितनी गाली बक सकता है, कितना नंगा हो सकता है, कौन कितना किसका पक्षकार हो सकता है, कौन सच को दबाने के लिए झूठ की मीनार खड़ी कर सकता है और कौन हवा के मुताबिक अपनी भाषा व सोच को गिरवी रख सकता है-इस आधार पर जो समूह जिसको देखता है, उसे भी टीआरपी में शामिल कर लिया जाता है-न्यूज का कंटेंट तब भी भाड़ में गया था, आज भी गया। 


इसीलिए अच्छा हो कि न्यूज़ चैनलों की मौजूदा टीआरपी की रेटिंग और उसके ट्रेंड्स को देखते हुए A B C D केटेगरी में बना देनी चाहिये। साल में एक बार उसकी परफॉर्मेंस की समीक्षा के आधार पर  कैटेगरी रिवाइज होना चाहिए। केटेगरी के हिसाब से ही मार्केटिंग और विज्ञापन दर भी तय होगी तो फर्जीकारिता, पार्टीकारिता और पतितकारिता करने से कुछ लोग जरूर बाज आएंगे।