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अदालत के दखल से सुदर्शन टीवी का शो बंद होना बड़ी बात नहीं, बड़ी बात यह है कि ऐसा शो बनाने के लिए उसे हिम्मत कहां से मिली?

नितिन ठाकुर

एक चैनल है. एक आदमी जैसा जीव है. वो आदमी जैसा जीव अपने चैनल को मुख्यधारा में लाने के लिए बरसों से मेहनत कर रहा है. जब मैं लिख रहा हूं कि मेहनत कर रहा है तो उसमें आप खुद जोड़ लें कि सालों साल से धार्मिक उन्माद फैला रहा है, धर्म विशेष के प्रति लोगों को भड़का रहा है, फेक न्यूज़ के प्रचार-प्रसार में जुटा है आदि आदि आदि. अब ये उसकी आतंकवादी मेहनत का परिणाम ही है कि जिस चैनल को दो-चार साल पहले तक लोग चिमटे से भी छूना पसंद ना करते हों उसके एक शो पर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई हो और माननीय न्यायाधीशों का कीमती वक्त ज़ाया हो. 


बात आपकी पकड़ में रहे इसलिए बता दूं कि इस चैनल ने एक शो तैयार किया था. धूमधाम से प्रोमो चलाया. पूरा माहौल बनाया ताकि उसके बूते एक चर्चा देश में चला सके जैसी एक आदरणीय ने पिछले दिनों अर्बन नक्सल चलाई थी. बहरहाल, शो का लब्बोलुबाब ये था कि यूपीएससी की परीक्षा पास करके एक धर्म विशेष के लोग नौकरशाही में अपना दबदबा कायम करने की 'साज़िश' रच रहे हैं. इस थ्योरी की पुष्टि के लिए उसने इधर उधर से नेताओं, बुद्धिजीवियों, उस धर्म के शुभचिंतकों की बाइट्स या कहें बयान इकट्ठे किए. इनमें से कुछ उग्रता और कुछ विनम्रता से वही बात दोहरा रहे थे जो कोई भी इंसान अपने समुदाय के प्रतिनिधित्व के लिए कहेगा. मसलन, हमारे लोगों को नौकरशाही में जगह बनानी चाहिए ताकि हमारे समुदाय के मुद्दों पर ग़ौर किया जा सके जो फिलहाल नहीं हो रहा वग़ैरह वग़ैरह. 


अब देखा जाए तो इसमें ग़लत क्या है? ये तो आम राय है ही कि अल्पसंख्यक और पिछड़े-दलित वर्ग के लोगों का भला तभी होगा जब वो खुद अपना प्रतिनिधित्व कर सकेंगे. संसद हो, नौकरशाही हो, वो तमाम जगहें हों जहां अहम फैसले लिए जाते हैं उन सभी स्थानों पर उन्हें खुद जाकर बैठना होगा. वो किसी कारण से नहीं बैठ पा रहे तो समाज प्रयास करेगा कि उन लोगों को वहां तक पहुंचाया जाए. आगे तो वो खुद रफ्तार पकड़ ही लेंगे. लंबे समय तक उनका रास्ता रोक कर रखा गया तो कुछ समय उन्हें लय पकड़ने में लगेगा ही. इसका एक ज़रिया आरक्षण था. 


आज भले ही आरक्षण के उद्देश्यों को लेकर कुछ भ्रम हो या फैलाया गया हो मगर शुरू में तो यही माना गया कि आरक्षण के रास्ते वंचित वर्ग के लोग उन जगहों पर पहुंचेंगे जहां अहम निर्णय होते हैं. इसका लेना देना किसी की गरीबी दूर करने से नहीं था. गरीबी दूर करने का लिए बाकी और तरह की योजनाएं थीं. ख़ैर, माना ये गया कि तंत्र चलाने के लिए जो अहम निर्णय लेने की प्रक्रिया होती है उसमें वंचित वर्ग अपनी भागीदारी निभाएगा तो बहुत संभव है कि समाज का असंतुलन समाप्त होगा. यही समझ उस धर्म विशेष के लोगों की भी है. उन्होंने ये समझ डेवलप की है कि आरक्षण वगैरह अपनी जगह है लेकिन हाल फिलहाल यूपीएससी के ज़रिए ज़्यादा से ज़्यादा तादाद में सरकारी नौकरी हासिल की जाए. 


इस अप्रोच को आपराधिक कैसे कहा जा सकता है? मेहनत करके, पढ़ लिखकर, अच्छी ट्रेनिंग से यदि कोई सरकारी अफसर बनता है तो उसे अपराध कहा जाएगा? क्या ये साज़िश हुई ? देशद्रोह कहा जा सकता है? उस आदमी जैसे दिखनेवाले जीव ने तो यही कहा. मैं उसे आदमी जैसा दिखनेवाला इसलिए लिखता हूं क्योंकि केवल पैदा हो जाने भर से कोई इंसान नहीं हो जाता. सभ्य समाज में खुद को इंसान कहलाने के लिए कुछ न्यूनतम गुण होने चाहिए और उनमें सबसे बड़ा है 'प्रेम'. प्रेम जो केवल खुद या अपने लोगों से ना हो बल्कि खुद से असहमत, अलग विचार या निष्ठा रखनेवालों से भी हो. कम से कम इतना तो हो कि हम उनके मरने-मिटने की कामना ना करने लगें. 


किसी समुदाय के प्रति इतना नफरती चिंटू होना कि आजीवन ज़हर की फैक्ट्री की तरह काम करना आपको 'इंसान' होने से गिरा सकता है. वो गिर गया. पहले इंसान रहा होगा. अब तो नहीं है. आप मानते हों तो शौक से मानिए, मेरा शक फिर आप पर भी है. तो मैं ये कह रहा था कि एक समुदाय को लंबे समय से पंचर लगानेवाला कहकर चिढ़ाया गया. धारणा पुख्ता की गई कि ये पढ़ लिखकर नौकरी कभी कर नहीं सकते. अब उस समुदाय ने ठाना कि वो पढ़ेगा और नौकरी भी हासिल करेगा तो इसमें किसी को पेटदर्द क्यों है? 


वो ठीक है कि यदि किसी भी व्यक्ति ने अधिकारी बनने के बाद अपने अधिकारों का उपयोग बायस्ड होकर किया तो वो ग़लत है जिसका हिसाब उसके ऊपर बैठे लोग करेंगे मगर आप नौकरी पाने की उसकी मेहनत को ये कह कर कैसे ख़ारिज कर सकते हैं कि इसके पीछे तो साज़िश है. क्या आप गारंटी दे सकते हैं कि अफसर बनकर लोग अपनी जाति, क्षेत्र, धर्म से जुड़े मसलों में बायस्ड नहीं होते? कोई नहीं दे सकता है.


तो हुआ ये कि आदमी जैसे दिखनेवाले भाईसाहब शिवाजी और बाबासाहेब का नाम लेकर लोगों की स्वीकार्यता पाने की कोशिश करते रहे. पोजीशन लेते रहे कि वो राष्ट्र के सम्मुख उपस्थित होनेवाले एक संकट का पर्दाफाश कर रहे हैं. उनका शो हाईकोर्ट ने रोक लिया. वो तड़प गए. अपने घर के चैनल पर लगातार अपने दर्शकों को स्टूडियो में घूम घूमकर संबोधित करते रहे. शो पर बैन का मामला सुप्रीम कोर्ट गया. 


जजों ने वही कहा जो इस समय देश की अधिसंख्य जनता महसूस करती है. हालांकि वैसा करने के अपने ख़तरे भी हैं. बोला गया कि चैनलों पर लगाम लगाने के लिए सरकार कुछ दिशानिर्देश जारी करे. सरकार ने कहा कि बेलगाम होनेवाले मामलों में तो सोशल मीडिया का रिकॉर्ड अधिक ख़राब है, चैनल और अख़बार वाले तो फिर भी जवाबदेही बरतते हैं. केस आगे बढ़ा. केंद्र सरकार के नुमाइंदों ने शो देखा और इसे कार्यक्रम संहिता का उल्लंघन माना. ये नौबत तब है जब उस जीव को सरकार का करीबी माना जाता है.


कम से कम वो तो ये दिखाने में कोई कसर नहीं छोड़ता. ईश्वर ही जानता है कि उसे हथियारबंद सुरक्षा कैसे मिली हुई है? गार्ड्स को लेकर घूमता है, लोगों में रौब पैदा करता है, खुद सुरक्षित है और ज़हरीली ज़ुबान से लोगों में नफरत फैलाता है. अब सरकार कह रही है कि हमने चैनलवाले को नोटिस भेजा है, जवाब आने दीजिए फिर कार्यवाही करेंगे. अदालत ने इस पर कहा कि अगर सुनवाई ना होती तो सारे शो का प्रसारण हो चुका होता. बात एकदम ठीक है. हुआ भी अब तक यही है. वो अपने ज़हर भरे शो चलाता रहा है क्योंकि मामला कभी अदालतों तक इस तरह नहीं पहंचा. 


इस बार बात गंभीर हो रही है. ना केवल यूपीएससी जैसी संस्था, देश में काम कर रहे इंटेलिजेंस संस्थानों और सरकार पर भी ये निरंकुश जीव गंभीर सवाल खड़े कर रहा है. इसकी नज़र में खुद इससे अधिक देश का भला कोई सोच ही नहीं पा रहा. इसकी स्थिति अद्भुत है. अदालत ने अब सरकार को कहा है कि कार्यवाही करके हमें सूचित करें और तब तक शो डिब्बा बंद रहेगा. चैनल के वकील को भी फटकारा है जो किसी चैनल के 'हिंदू आंतकवाद' पर शो का सहारा लेकर बचने की कोशिश कर रहा था. अदालत ने हड़का कर कहा है कि शो पर राय नहीं मांगी है, जवाब मांगा है.


अब हालात ये हैं कि देश के फर्जी रक्षक जी का शो माननीय अदालत के आदेशों के चलते रोक दिया गया है. अगर सब ठीक रहा तो कभी प्रसारित भी नहीं होगा. हालांकि मैं बैन संस्कृति को ठीक नहीं मानता पर ऐसे मामलों में जहां आप एक पूरे समुदाय को देश के खिलाफ साज़िशकर्ता बता रहे हैं वहां कैसे किसी को सार्वजनिक मंच से ज़हर फैलाने की अनुमति दी जा सकती थी? मैं अदालत को निजी तौर पर अपना शुक्रिया पेश करता हूं और उम्मीद करता हूं कि कितनी ही तरह निराश करने के बावजूद सरकार समझेगी कि चैनल चलाने वाला आपके संरक्षण में निजी तौर पर फल फूल रहा है. 


अपनी नफरत में ये कितनी ही बार आपकी रही सही उदारता को भी बुरी तरह चैलेंज करता है. चैनल का लाइसेंस लेकर सरकार, सरकारी संस्थाओं, धार्मिक समुदाय और मेहनत करके एक्ज़ाम निकालनेवाले लोगों के खिलाफ ऐसा घृणा अभियान समय से रुकना चाहिए वरना आज इसके अगंभीर प्रयास कल अपनी जड़ें जमा लेंगे और ज़्यादा नहीं तो थोड़ी बहुत संख्या में नफरतियों में विश्वास पैदा होगा कि उनके विचार मान्यता पा रहे हैं.